अब दो तरह की आत्मनिर्भरता देखने को मिलेगी- भौतिक और आध्यात्मिक। भौतिक आत्मनिर्भरता का संबंध धन से होगा और इसका रिमोट संसार के हाथ में रहेगा। आध्यात्मिक आत्मनिर्भरता में आपकी खुशी का, आनंद का रिमोट आपके पास होगा। अपनी खुशी दूसरों से नियंत्रित न होने दें। हमारे स्वयं के अलावा कोई और हमें खुश नहीं रख सकता। हां, धन के मामले में स्थिति थोड़ी विपरीत है। धन कमाने जब भी निकलेंगे, दूसरों की जरूरत पड़ेगी। आत्मनिर्भर इसलिए भी होना है कि इस महामारी में बहुत से उपद्रव हमने खुद ही किए हैं, तो निपटना भी हमें ही पड़ेगा वैसे तो रावण से कुछ सीखा नहीं जा सकता। लेकिन कभी-कभी दैत्य-राक्षस भी कुछ ऐसी बातें कह जाते हैं जो हमारे काम की हो सकती है। युद्ध के दौरान जब राम जी की सेना के सामने रावण के लोग भागने लगे रावण ने गरजते में अपनी सेना से कहा था-
निज भुजबल मैं बयरुबढ़ावा।
देहऊँ उतरू जो रिपु चढ़ि आवा।।
मैंने अपनी भुजाओं के बल पर बैर बढ़ाया है। और जो शत्रु सिर पर चढ़ आया है, उससे मैं ही अपने ढंग से निपटूंगा। यह भी आत्मनिर्भरता का दृश्य है। जीवन में बहुत से काम हमारे ही किए हुए हैं जो अब सवाल, समस्या बनकर खड़े हैं। तो समाधान भी हमें ही ढूंढना है। भौतिक आत्मनिर्भरता में जा रहे हो तो दूसरों का सदुपयोग कीजिए और आध्यात्मिक रूप से आत्मनिर्भर होने का अर्थ है स्वयं का ठीक से उपयोग करना।
बहुत अधिक बोलने वालों के शब्द भी उनकी ऊर्जा को चूस लेते है। यदि आप जानते हैं कि आप यह काम कर सकते हैं तो कुछ ना कुछ उर्जा तो उसमें लगेगी, तो कम से कम बहुत अधिक बोलिए मत।
बचे हुए शब्द भी उस उर्जा में जुड़ जाएंगे, जो आपके काम आएगी। रावण जब अपने बारे में बहुत बोल रहा था तो राम जी ने तीन उदाहरण दिए थे, जिस पर बाबा तुलसी ने मानस में छंद लिखा:-
जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार महं पुरूष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा।
एक सुमनप्रद, एक सुमन फल एक फलई केवल लागहि।
एक कहहि कहहि करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं।
रामजी ने कहा था, रावण बेकार की बकवास कर अपना यश समाप्त मत करो। एक नीति सुनो, संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं। गुलाब, आम और कटहल की तरह। जिस प्रकार गुलाब केवल फूल देता है, फल नहीं। आम फूल और फल दोनों देता है। तथा कटहल केवल फल ही देता है। इसी प्रकार पुरुषों में एक वर्ग होता है। जो कहता है करता नहीं, दूसरा कहता और करता भी है। और तीसरा वर्ग होता है जो केवल करता है लेकिन कहता नहीं, यहां श्री राम हमें भी समझा गए कि आप किस प्रकार के व्यक्ति बनना चाहते हैं। आप ही को तय करना है ये ।
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हंसी भी कमाल की कला है। यदि सही बात पर हंस रहे हैं तो दोनों पक्षों का मनोरंजन हो जाएगा, आनंद आएगा। लेकिन यदि गलत बार पर बात पर ठहाके मार रहे हैं तो वह किसी की खिल्ली उड़ाना हो जाएगा। राम धीर-गंभीर, मर्यादा पुरुषोत्तम थे, लेकिन हंसी के मामले में बड़े परिपक्व थे। उनका मौन और हंसी दोनों ही निराले थे। रावण से युद्ध करते हुए श्री राम कई बार हंसे और हर बार उस हंसी के पीछे एक गहराई थी। रावण ने जब अपनी माया से एक साथ बहुत से रावण पैदा किए तो देवता वानर सब डर गए। राम जी को लगा अब तो इसे रोकना पड़ेगा, तब रावण की माया को काटने के लिए धनुष-बाण साधा और मुस्कुराए। इस दृश्य पर बाबा तुलसीजी ने लिखा:-
सुर बानर देखे बिकल हंस्यो कोसलाधीस
सजि सारंग एक सर हते सकल दससीस
राम मुस्कुराए और एक ही बाण से रावण की सारी माया हर ली, हम रामजी से सीख सकते हैं किसी न किसी रावण के रूप में जिंदगी में चुनौतियां आती ही रहेगी, एक से निपटोगे, दूसरी पैदा हो जाएगी। अपनी शिक्षा, योग्यता और परिश्रम से इनके समाधान को तैयार रहें लेकिन तनावग्रस्त नहीं होना है। मुस्कुराते हुए उनसे निपटना है। राम की तरह हंसेंगे तो जीत सुनिश्चित है, रावण की तरह ठहाके मारेंगे तो हारने से कोई नहीं बचा सकता।
अपने इंसान होने पर इतराना और घबराना एक साथ चलता है, रावण के साथ भी ऐसा ही हो रहा था, पहले खूब इतराया कि मेरे पास इतने वरदान हैं, इतना बल है। फिर, जब सामने राम आए तो घबराया। जब भाई पर ही शक्ति छोड़ी जिसे राम ने अपने ऊपर ले ली, तो विभीषण को भी क्रोध आ गया। जिस भाई के सामने कभी सिर उठाकर बात नहीं करते थे। उस पर ही गदा लेकर दौड़ पड़े। लेकिन, यहाँ विभीषण एक बड़े काम की बात बोल गए, जिस पर बाबा तुलसी मानस में लिखते है कि:-
सादर सिव कहुं सीस चढ़ाए
एक एक के कोटिन्ह पाए
तेहि कारन खल अब लगि बांच्यो
अब तव कालु सीस पर नाच्यो
अरे अभागे, तूने आदर से अपने सिर, भगवान शिव को चढ़ाए हैं। उसी के बदले इतना सब पाया है। और इसी कारण तू अब तक बचा हुआ है। लेकिन अब काल तेरे सिर पर नाच रहा है, यहां विभीषण ने कहा है:- 'उसी कारण'
कौन-सा कारण..?
कि तूने एक सद्कर्म किया था, शिव उपासना का। देखिए, लोग सद्कर्म से भी बुरी बात का संचय कर लेते हैं। तप किया जाता है पुण्य सृजन के लिए, परंतु रावण ने तप किया पाप अर्जन के लिए। इस घटना से, विभीषण की इस बात से हमें भी सीख लेना चाहिए कि कहीं हम भी अच्छे काम करके बुरे परिणाम की तैयारी तो नहीं कर रहे हैं..?
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इस संसार में पूरा कुछ भी नहीं होता, परमात्मा को छोड़ सब कुछ अधूरा है। इसलिए जब कोई ईश्वर से जुड़ता है, तो वहीं ईश्वर संकट में उसका सहारा बनता है। भगवान जानते हैं हर मनुष्य में कुछ न कुछ संभावना होती है, फिर अपने परिश्रम से वह उस संभावना को वास्तविकता में बदल देता है। लेकिन वास्तविकता से अगला कदम होता है पूर्णता। जो बिना भगवान की कृपा के मुश्किल होता है। मनुष्य अपने प्रयास करता है, पर उनकी पूर्णता में परम शक्ति का सहारा चाहिए। लंका के युद्ध में ऐसा ही कुछ घटा था हनुमान जी के साथ।
रावण ने विभीषण पर शक्ति छोड़ी, राम जी ने अपने ऊपर ले ली यह देख विभीषण को क्रोध आया और रावण से भिड़ गए। इन दोनों को भिड़ता देख हनुमान जी आए तो रावण उनसे भी भिड़ गया। जब हनुमान जी को लगा रावण जैसे दुर्गुण को अकेला नहीं मार पाऊंगा और यहां जो दृश्य उपस्थित हुआ उस पर बाबा तुलसी ने मानस में लिखा:-
बुधि बल निसिचर पराई पार्यो
तब मारुतसुत प्रभु संभार्यो
जब बल और बुद्धि से रावण को नहीं गिरा सके तो हनुमान जी ने श्रीराम को याद किया।
यहाँ हमारे समझने की बात यह है कि बुद्धि और बल हमें उपयोग में लेना है लेकिन कुछ दुर्गुण तो ऐसे होते हैं जिनसे निपटने के लिए एक सीमा के बाद उस परम शक्ति का सहारा लेना ही पड़ता है।
Writer : Amit Bharadwaj (Lalsot)
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